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Wednesday, May 29, 2024

वीर सावरकर की वीरगाथाः काले पानी की सजा से लेकर स्वतंत्रता के संघर्ष तक

 संवाददाता - रोहिणी राजपूत




वीर सावरकर, जिनका पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर था, भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी, लेखक, और समाज सुधारक थे। उनका जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भगूर गांव में हुआ था। सावरकर का जीवन देशभक्ति और संघर्ष की मिसाल है।
सावरकर की शिक्षा में बहुत रुचि थी और उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा नासिक में पूरी की। इसके बाद उन्होंने पुणे के फग्र्युसन कॉलेज से स्नातक किया। उच्च शिक्षा के लिए वे इंग्लैंड गए और वहाँ उन्होंने कानून की पढ़ाई की। वहीं पर उन्होंने 'फ्री इंडिया सोसाइटी की स्थापना की और भारतीए छात्राओं को स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरित किया।
वीर सावरकर का सबसे महत्वपूर्ण योगदान 1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी गई पुस्तक 'द फर्स्ट वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस' है, जिसमें उन्होंने इस संग्राम को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताया। इस पुस्तक ने भारतीय युवाओं में स्वतंत्रता की भावना जगाई और अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की लहर को तेज किया।











वीर सावरकर का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। उनकी बहादुरी और राष्ट्रभक्ति के कई किस्से हैं, लेकिन अंडमान की सेल्यूलर जेल की कालकोठरी में उनकी एक विशेष वक्तव्य हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं।
1909 में, सावरकर को अंग्रेजी सरकार के खिलाफ षड्यंत्र करते और देशद्रोही गतिविधियों में संलिप्त होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उन्हें काले पानी की सजा सुनाई गई और अंडमान के सैल्यूलर जेल भेजा गया। वहाँ उन्होंने 10 साल कठोर कारावास में बिताए। जेल में भी उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों को नहीं छोड़ा और लगातार स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरणा देते रहे।
अग्रेजी हुकू‌मत उनके क्रांतिकारी गतिविधियों से परेशान थी। 1909 में, उन्हें नासिक कांस्पिरेसी केस से गिरफ्तार कर लिया गया और 1910 में उन्हें काले पानी की सजा सुनाई गई। सावरकर
को अंडमान और निकोबार ‌द्वीप समूह की कुख्यात सेल्यूलर जेल में भेज दिया गया। यह जेल भारत की सबसे कठोरतम जेल मानी जाती थी, जहाँ पर राजनैतिक कैदियों को अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं।













सेल्युलर जेल की कठोरतम परिस्थितियों में भी सावरकर ने हार नहीं मानी। एक दिन, उन्हें अपनी कालकोठरी में अकेले बैठकर स्वतंत्रता संग्राम की योजनाएँ बनाने का विचार आया। लेकिन समस्या यह थी कि जेल में लिखने की सामग्री नहीं थी। तब उन्होंने अपनी तीव्र बु‌द्धि का इस्तेमाल किया और जेल की दीवारों की ही कागज और अपनी नाखूनों को कलम बना लिया।
सावरकर ने जेल की दीवारों पर अपनी कविताएँ और लेख लिखना शुरु किया। उनकी कविताएँ इतनी प्रभावशाली थी कि उनके साथी कैदी भी उनसे प्रेरणा लेते थे। वे अपनी कविताओं में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्व और देशभक्ति की भावना को उकेरते थे। उनकी एक प्रसिद्ध कविता "ने मजसी ने परत मातृभूमीला, सागरा प्राण तळमळला' ने जेल के अंदर भी आजादी की लौ जलाए रखी।














जेलर और गार्ड्स ने जब दीवारों पर लिखी हुई कविताएँ देखी, तो उन्होंने सावरकर को और कठोर दंड देने का प्रयास किया। लेकिन सावरकर का हौसला और उनकी राष्ट्रभक्ति की भावना को वे तोड़ नहीं पाए। सावरकर ने जेल में अपने दस साल के कारावास के दौरान अनेक रचनाएँ की, जिन्हें बाद में उनके अनुयायियों ने प्रकाशित किया।
सावरकर की यह अदम्य इच्छा शक्ति और संघर्ष की भावना ने न केवल उनके साथी कैदियों को बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरित किया। उन्होंने अपने अ‌द्वितीय और साहसी कार्यों से साबित कर दिया कि सच्चे देशभक्त को कोई भी बाधा रोक नहीं सकती।



जेल से रिहा होने के बाद भी सावरकर ने समाज सुधार और हिंदू महासभा के माध्यम से देश की सेवा की। वे एक सच्चे राष्ट्रभक्त थे, जिन्होंने भारतीय समाज को एकता और समानता का संदेश दिया। उनका जीवन संघर्ष, त्याग और देशभक्ति की अ‌द्वितीय मिसाल है।
26 फरवरी 1966 को वीर सावरकर का निधन हो गया, लेकिन उनका योगदान और उनकी देशभक्ति आज भी हमें प्रेरित करती है। वीर सावरकर का नाम भारतीय इतिहास में सदैव अमर रहेगा। वे एक महान क्रांतिकारी, लेखक और समाज सुधारक के रूप में सदैव स्मरणीय रहेंगे।




























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